Thursday 27 December 2012

इक बूढ़े दरिया के दिल में, चलो जवानी रखते हैं.../ नवीन कुमार पाठक

इक बूढ़े दरिया के दिल में, चलो जवानी रखते हैं
सदियों से ठहरे पानी पे, कुछ बूँदें पानी रखते हैं

कहने सुनने से दूर बहुत, कोई ठिकाना करते हैं
अब तक के बीते लम्हों का नाम कहानी रखते हैं

बरसों की दूरी रिश्तों में सन्नाटा भर देती हैं
सन्नाटे की पीठ पे कुछ बर्फीला पानी रखते हैं

वो आएगा औ हम सबको अपनी यादें दे जायेगा
वो भी तो ले के जाये, कुछ तूफानी करते हैं

ये तारीख जगह और वक़्त एक दिन यादें हो जायेंगे
इन मुस्कानों के बक्सों में थोड़ी शैतानी रखते हैं

इक बूढ़े दरिया के दिल में, चलो जवानी रखते हैं !!

Monday 12 November 2012

ज़ख्म पे ज़ख्म लगा हो तो... / नवीन कुमार पाठक

घाव गर गहरा बहुत हो तो समय लेता है
ज़ख्म पे ज़ख्म लगा हो तो समय लेता है

वक़्त के साथ वक्ती साथ बदल जाते हैं
खून से खून जुदा हो तो समय लेता है

मेरे होने का भरम मुझको घुने जाता है
बदलना हो यही एहसास तो समय लेता है

ये मेरे नाम के आगे जो लिखा है, क्या है
हरतरफ धुंध हो तो दिखने में समय लेता है

आज कुछ तुमसे सुना है तो कभी मुस्का दूंगा
जो सुकूं कम हो तो एहसास, समय लेता है

ज़ख्म पे ज़ख्म लगा हो...

Tuesday 30 October 2012

फिर क्यूँ तुम्हे बेगाने लगे !!

आज तक तो पीठ करके ना आये थे ना गए थे तुम
बेबस सही पर हम ही थे,  फिर क्यूँ तुम्हे बेगाने लगे ||

तय कर लिया तो कर लिया, फिर सोचना कैसा
किसलिए उंगली फंसा ली, हम मुड़ के जब जाने लगे||

अपनी भी कश्ती कब तलक भटकेगी झोंके खाएगी
कारवां से छूटे हुए भी, सब, आखिर तो ठिकाने लगे||

कैसे चंद मिनटों में जले और मिट के मिटटी हो गए
ना थे कागज़ी रिश्ते मेरे, गढ़े थे और बड़े ज़माने लगे||

Wednesday 10 October 2012

ज़िन्दगी तू कितनी बड़ी हो गयी !!

कहाँ से चली थी और आ के कहाँ पे... खड़ी हो गयी
इत्ती सी थी जब मिली थी मुझे, ज़िन्दगी तू कितनी बड़ी हो गयी !!

Friday 18 May 2012

क्षणिकायें

धुएं को देखोगे तो धुंधला ही दिखेगा,
चाँद अगर दिखेगा तो उजला ही दिखेगा |
इश्क को जमीं मिलने तक रुक लो,
तेज आंधियों में आँखें मूँद लो झुक लो |
जब तक हो नहीं जाता, इश्क सच मुच में,
होता रहेगा बार बार और पहला ही लगेगा |

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वो मुझ जैसा है, मेरे काम का है
मापना कैसा ?
वो एक अच्छा इंसान है
उसे मेरा दोस्त होना चाहिए |

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Thursday 17 May 2012

लो ये मैंने, हाथ दोनों, सामने तेरे पसारे

लो ये मैंने, हाथ दोनों, सामने तेरे पसारे
मैंने माना मेरी हद से, दूर हैं तेरे सितारे
दम मेरा, औकात मेरी, तेरी चुटकी के इशारे
लो ये मैंने, हाथ दोनों, सामने तेरे पसारे ||

तेरे चलाने का तरीका, मुझको समझ आया नहीं
है बात ये दीगर कभी खुद से भी चल पाया नहीं
मसअला कुछ तालियाँ ही रह गयीं जलसे के बाद
कौन ये समझा भला, हैं रक्स ये तेरे ही सारे ||

मेरी ख्वाहिश पे तेरी साजिश, जिंदगी हरदम लगी
मेरे हिस्से जितनी भी थी, मुझको हमेशा कम लगी
लेखनी तेरी मेरे संग बीच ही बहती रही
मेरा मुक़द्दर इस पार और मर्जी मेरी थी उस किनारे ||

दम मेरा, औकात मेरी, तेरी चुटकी के इशारे
लो ये मैंने, हाथ दोनों, सामने तेरे पसारे ||

Saturday 28 April 2012

लोग हर बात का मतलब निकाल लेते हैं

बात सीधी को सीधी नहीं रहने देते
लोग हर बात का मतलब निकाल लेते हैं;
बहुत मासूम सी बातें हैं और ये दिल भी
जाने क्या करते हैं, उलझन में डाल देते हैं ||

लफ्ज़ को लफ्ज़, खयाल को शह देना था
वाह भी करते हैं तो उसमें सवाल देते हैं;
सामने रख के प्याले की कसम देते हैं
ये मेरे दोस्त मुझे मुश्किल में डाल देते हैं ||

राह चलते रहे ऐसा ना कभी सोचा था
ठोकरे क्यूँ मेरी राहों में डाल देते हैं
साल में एक दफा ये खुल के बरसने वाले
बारहा क्यों मेरे जी को मलाल देते हैं ||

होगी ये रस्म कोई तो चलो ऐसा ही सही
जाने वालों पे कुछ सिक्के उछाल देते हैं
वो गया है जो, थोड़ा यहीं रह जाता है
ऐसा करते हैं कल जड़ से निकाल देते हैं ||

लोग हर बात का मतलब निकाल लेते हैं !!

Thursday 26 April 2012

आज एक तारा उगा नहीं

मैं और मेरा आसमान
और कुछ टिमटिमाते तारे;
यही है मेरी शाम की महफ़िल |
एक बार, रोज ही पूछ लेते है
मौसम का हाल
कुछ नई ताज़ा
और फिर, कल मिलने का वादा |

शहर की जगमगाती जिंदगी
रात को स्याह रात होने नहीं देती;
शहर के धूल की चादर
देर रात होने पर भी
जाती नहीं है,
और बहुत दूर तक ढक देती है
मेरे आसमानी रिश्तों को |

आज पच्छिम की तरफ
कुछ धुंध ज्यादा थी
एक साथी मेरा दिखा नहीं |
मेरे शरीर का पच्छिमी हिस्सा
तब से कुछ सुन्न सा है;
और ये खालीपन
कल साँझ तक तो रहेगा ही |

अब किसी से कहूँ भी तो क्या
कोई क्या समझेगा कि
आज एक तारा उगा नहीं !!

Wednesday 25 April 2012

अधूरापन नहीं भरता

किसी करवट बदन मेरा, नहीं पूरा नहीं पड़ता
मैं इस लेटूं कि उस लेटूं , अधूरापन नहीं भरता
कुछ तो है, जो है, या है नहीं, कुछ रोज जैसा कुछ
थकन से चूर हूँ फिर क्यूँ , नींद से गिर नहीं पड़ता ||

मेरे बिस्तर की सिलवट गिन के देखीं, रोज जितनी हैं
यही दो चार चीज़ें नींद को, जरूरत और कितनी हैं
एक ही नींद में मेरी सुबह हो जाती थी अब तक
नींद की धार मर गयी है, समय काटे नहीं कटता ||


चिढ़न तो होती ही है जब मेरे मन का नहीं होता
बिगड़ जाऊं अगर एकबार, बिना निपटे नहीं सोता
मगर लड़ने झगडने के भी तो कुछ कायद होते हैं
जरा गुस्सैल हूँ तो भी, नींद से तो नहीं लड़ता ||

जो आदत पड़ गयी सो पड़ गयी, बदली नहीं जाती
बदल जाये जगह भी तो, नींद अक्सर नहीं आती
मेरी तकिया बदल दी है कि चादर मखमली कर दी
मुझे सूती की आदत है, ये सूती सा नहीं गड़ता ||

Saturday 21 April 2012

निकलती है ज़िंदगी

धुएं की तरह हाथ से फिसलती है ज़िंदगी
हथेली पे रक्खी बर्फ सी पिघलती है ज़िंदगी
सारे जतन सारे मनन खाली ही जायेंगे
हर क़दम से आगे एक क़दम, चलती है ज़िंदगी ||

मंज़िल के फासलों को समय की लगाम है
अपने नियत समय पे ही हो जानी शाम है
अब साँसों से तेज अपनी चाल कर सके तो ठीक
मुट्ठी में बंद रेत सी  निकलती  है ज़िंदगी ||

है कौन भला शख्श जो रस्ता दिखायेगा
हर सर पे है तलवार, सर खुद को बचायेगा
अपनी लड़ाई खुद ही अगर लड़ सके तो ठीक
झुलसी अगर तो मोम सी गलती है ज़िंदगी ||

या रब मेरे कदमों में थोड़ी और जान दे
मेरे गुनाह माफ़ कर हाथों को थाम ले
तेरी खुदाई मुझपे करम कर सके तो ठीक
साँसों के साथ जिस्म में जलती है ज़िंदगी ||
(22.02.02)

Tuesday 17 April 2012

मन को ना चंचल होने दो

ना नेह करो इतना कि मन को दुखी करे
हाँ स्नेह करो इतना कि दिल में खुशी भरे
इस तरह से जीवन को जीने कि विधि करो
मन ना तो हो बंधन में ना स्वच्छंद रहे ||

मोह ले मन को एक पल में इतना हो प्यारा
इतना हो गंभीर कि नभ का एक सितारा
जीने को मजबूर करे जिसका आकर्षण
मिट जाने को काफी हो जिसका एक इशारा ||

जब देखो तो, दो नयन लिए मन कि छाया
वाणी से भी ना छुपी रहे मन कि माया
स्पर्श तुम्हारा इतना ज्यादा कोमल हो
यूं लगे कि जैसे छू ली हो मन की काया ||

मन को ना चंचल होने दो, ये बेकल कर देगा
ज्यादा भावुक जो हुआ कहीं, तो विव्हल कर देगा
जा मिले कहीं जो किसी के मन से चुपके से
तुमको ही नहीं, सारे जग को ये पागल कर देगा ||

मन को ना चंचल होने दो...
(20.01.98)

Sunday 15 April 2012

... जिंदगी

कीड़े मकोडों सी जिंदगी
या कि
मृग मरीचिका में फंसे हुए
कुछ सूंघते-टटोलते
कीड़े मकोडो से मानव |

जीवन में कोई लक्ष्य ही
धारण ना कर सके
या यूँ कहें
सोचने विचारने का
अवसर ही नहीं मिला |

संतो ने कहा
जीवन जल के सामान है
उसे बहने दो
स्वयं ही मार्ग बना लेगा
और मूर्ख मानव ने मान लिया |

छोड़ दिया जीवन को निरुधेश्य
और सूंघता-टटोलता फिर रहा है
कीड़ों मकोडो कि तरह |
(03.08.01) 

हे प्रणेता ! ऐसा वर दो

हे प्रणेता ! ऐसा वर दो
दृढ निश्चयी मेरे मन को कर दो

दुष्कर्मो और कुविचार से
संघर्ष सदा ही विजित करूं
आस्थाओं के ही अनुरूप
अन्तर्रात्मा जीवित करूं
 
हे संहारक ! ऐसा कर दो
दुर्गुण सारे विघटित हों
हे प्रणेता ! ऐसा वर दो...

कर्म मेरे - परिणाम मेरा
क्या इससे तुम संबद्ध नहीं
जन्म तेरे - विराम तेरा
क्या इससे मैं आबद्ध नहीं

हे दिग्दर्शक ! ऐसा निर्णय दो
स्वच्छ धवल जीवन निर्मल हो
हे प्रणेता ! ऐसा वर दो...

निर्णय जब लूं तब दृढ़ता हो
परिणाम सुनूं तब धैर्य रहे
मन पर मस्तिष्क का शासन हो
कर्मों में सदा ही शौर्य रहे

हे पालक ! ऐसा जीवन दो
प्रत्येक दशा में संयम हो
हे प्रणेता ! ऐसा वर दो...
(10.08.97)

मैं और मय

मैंने पहले मय को ढूँढा था
जीवन में मय को गूंदा था
मय ही जीवन में रौनक था
मय कजरा झुमका बूंदा था

मैं पर मय पर मैं छाया था
सब भूल था भरमाया था
थी नई अदा इठलाया था
धुन में अपनी इतराया था

मैंने मय को परिभाषा दी
फिर मय ने मैं को भाषा दी
मैं ने फिर मय अभिलाषा की
छाई मैं पर मय त्राषा सी

मैं ने मय को अवतार दिया
फिर मैं ने मय स्वीकार किया
मय ने मैं पर अधिकार किया
फिर मय ने मैं को मार दिया ||
(22.07.94)

उपेक्षित

बरात जा रही है
रौशनी, स्वयं को परिवर्तित कर रही है
संगीत की तीव्र धुनें
पैरों को
थिरकने पर विवश कर रही हैं |

एक विशाल जनसमूह
वृद्ध-युवा-बच्चे-महिलाएं
या यूं कहें
सम्बन्धी-मित्र-पड़ोसी-शुभचिंतक
सभी कतारों को बनाते बिगड़ते
मध्यम गति से
चलते जाते हैं |

प्रथम पंक्ति में
युवा एवं बच्चे नाच रहे हैं
कुछ वृद्ध भी हैं - अधेड़ भी
एक लय है
एक उन्माद है |

मगर

कोई है
जो नाच तो रहा है
या शायद
नाचने का अथक प्रयास कर  रहा है  |

भाव विहीन चेहरा है
कोई कुंठा है
या मानसिक अंतरद्वंद
औरों के साथ
स्वयं को लाने की प्रतिस्पर्धा
औरों के साथ स्वयं को
रखने का प्रयास |

ऐसा क्यूँ होता है ?
कोई वजह तो है
अभाव है
जो उसे पीड़ित कर रहा है
जो असमान्य कर रहा है
सामान्य से ज़रा सी बदली दशाओं में |

मैंने महसूस किया है
वो उपेक्षित  रहा है
प्रारंभ से ही
हर उस विषय पर
जो उसका अधिकार रहा था
मनुष्य होने के नाते |
(25.06.99)

अजनबी शहर

कोई जाना पहचाना ढूंढती आँखें 
कोई परिचित आवाज सुनने का प्रयास 
सब व्यर्थ

एक अपार भीड़ में
कुछ मिलता जुलता सा 
बिलकुल उसके जैसा 
हाँ - वही तो 
मगर 
मगर नहीं
वो नहीं 

एक दिवास्वप्न 
निरर्थक 

कुछ  है तो बस 
लंबी सडकें 
अंतहीन सडकें 
एक  शिथिल  पथिक 
और अजनबी शहर |
(10.10.99)

Friday 13 April 2012

एक कहानी बन जाने तक...

एक अनुरोध - रचना को गंभीर स्वर में माध्यम गति से विराम का ध्यान रखते हुए ही पढ़े

1. अलविदा

पास बैठी हो कब से
कुछ बोलती क्यूँ नहीं
क्या कुछ भी नहीं है ?

कल तक तो नहीं था 
ऐसा कुछ भी |
आखिर कुछ तो कहो !

क्या सुनना चाहता हूँ
जानता तो हूँ 
बहुत कठिन है 
मेरा सुनना और 
तुम्हारा कह पाना |

तुम जा रही हो
हमेशा के लिए
किसी और की होकर |

2. एक फूल 

तुम जा रही हो
और तुम्हें  
तुम्हारी दी
हर चीज़ वापस चाहिए |

कुछ खत
एक तस्वीर 
और एक वो 
आंसुओं में भीगा रुमाल|

मगर
ये फूल ना लौटाऊंगा
यही तो है
सब कुछ
तुम्हारा प्यार
तुम्हारे खत
तुम्हारी याद
और शायद
तुम 

3. लाल जोड़ा 

कितनी सुन्दर लगती हो 
लाल जोड़े में
कितनी सुन्दर
बिलकुल मेरे सपनों जैसी |

सब खुश हैं 
मुझे और तुम्हे छोड़ कर |

कितने और कितने तरह के
तोहफे हैं
मैं क्या दूं  ?

तुम्हारी याद ही तो है 
मेरे पास 

नहीं ! वो नहीं दूंगा 

क्या कहूँ 
क्यूँ परेशान हूँ 
काश !
मेरे लिए पहना होता 
ये लाल जोड़ा |

4. वो फूल 

एक रोज अचानक 
एक सूखा हुआ फूल 
बन्द पन्नों से सामने आ गिरा 
लगा की तुम आ गयी
शुष्क आँखें, वही मूक प्रश्न !

तुम भूली नहीं ?
इतने लंबे अंतराल में भी 

क्या कहूँ
मैं तब भी बेबस था 
आज भी निरूत्तर हूँ
मैं तब भी 
रोक नहीं पाया था 
और आज भी 
वापस नहीं ला सकता 
तुम्हारी डोली |

5. मेरे लिए 

कल काफी रात तक जगता रहा 
भूखा प्यासा
फिर कब नींद आई
पता नहीं 
और छत पर ही सो गया |

पुरानी आदतें हैं
जाते जाते जायेंगी 
भूल गया था 
तुम नहीं आओगी 
पराई हो गयी हो |
बस यही याद था 
तुम्हारा व्रत है 
करवा चौथ का
मेरे लिए |

6. इंतज़ार 

कल 
मेरे आस पास थी 
तुम
आवाज़ भी दी तुमने
मगर 
चुपके से 
एक आहट
कि मैं घूम जाऊं
तुम्हारी ओर
मगर जान ना पाऊँ
कि
तुमने पुकारा है |

मैं मुड़ा भी 
देखा भी 
और पुकारा भी 
तुम्हे
लेकिन तुम चली गयीं

ये क्या था ?
एक
लंबे अंतराल कि झिझक
या मजाक 
मेरे इंतज़ार का 

7. याद 

उस रात 
स्वप्न में कुछ देख कर
तुम चीख पड़ी थी
दर्द से भरी चीख
असहाय सी चीख

तुम्हारा स्वप्न था 
तुम भूल गयी
लेकिन मैं जाग रहा था
और आज भी 
डरता हूँ
आँख बन्द होते ही
फिर गूंजेगी 
वही आवाज़ 
नवीनsssss!

क्या देखा था 
पता नहीं
पर नाम मेरा ही था 
चीख में 
मुझे पुकारा था 
मदद के लिए 
या डर गयी थीं 
मुझी से 

8. तुम्हारी याद  

तुम कहती हो 
भूल जाऊं तुम्हे 
कोशिश कर के देखूं

निरर्थक प्रयास होगा
असंभव है 
तुम्हे भूल पाना 

जो तुम्हारी यादे हैं 
उन्हें मधुर स्मृतियाँ ना समझना 
वे व्यंग हैं 
जो स्वप्न करते हैं 
वे विषैले दंश हैं 
जो मेरे ह्रदय पर होते हैं 
कैसे भूल जाऊं तुम्हे 

वक्त के साथ सारे घाव भर जाते हैं 
तुम कोई घाव नहीं हो 
तुम कोई पुन्य भी नहीं हो
जो भुला देना चाहिए 

मेरा वर्तमान 
तुम्हारा दिया श्राप है 
इसे तो साथ रहना ही है
तुम्हारी याद बन कर 
निरंतर 
आजीवन
अंत तक |

9. वो सिन्दूर कि डिब्बी

वो सिन्दूर की डिब्बी 
आज भी रक्खी है 
यद्यपि तुम ब्याहता हो 
फिर भी ...

तुम्हारा मोह नहीं छूटता है 
तुम्हारा पाश नहीं छोड़ता है 
जानती है 
पाप है, अभिशाप होगा 
फिर भी ...

एक रट है तुम्हारे नाम की
ये आज तक है तुम्हारे नाम की
मानती है 
तुम्हारी राह तकना व्यर्थ है 
फिर भी ...

तुम और तुम्हारे लिए इंतज़ार 
तकदीर बना चुकी है 
सच जानती है, मानती है 
फिर भी ...

इसे पहले इंतज़ार था 
तुम्हारी मांग में चढ़ने का 
और अब है 
तुम्हारी मांग ............. |

10. एक कहानी बन जाने तक 

मैंने अपने घर के 
सारे दरवाज़े - सारी खिड़कियाँ 
बन्द कर रक्खी हैं 
फिर भी 
तुम्हारी याद चली आती है 

मेरे अंतर्मन मन से 
घर के आँगन तक 
सब तरफ घूमती है 
अतीत के पृष्ठों को पलट देती है 
और 
मुझे परेशान करके चली जाती है
जाने कहाँ ?
जाने कैसे ?
जबकि 
कोई झरोखा, कोई रास्ता 
खुला नहीं है 

तुम रोकती क्यूँ नहीं उसे 
ऐसे आने से |

मेरी जिंदगी की जिल्द खुल गयी है 
उसे रोको
इनसे ना खेले
मैं जुड़ने की कोशिश कर रहा हूँ
रोक लो
बस
एक कहानी बन जाने तक |

Thursday 12 April 2012

दधीच

इस बार दत्यों ने पृथ्वी पर
आक्रमण किया है
कोई दधीचि ना बचे
जिसकी हड्डियाँ वज्र बन सकें |

पर ये क्या
पृथ्वी तो दधीचियों से भरी पड़ी है
दधीचियों से दिखते मनुष्य
चलते फिरते कंकाल से मनुष्य

दैत्य पहले तो डरे फिर शीघ्र ही समझ गए
ये तप का प्रभाव नहीं है
भूख का असर है
कि भोजन ढूंढती हड्डियाँ
शरीर से बहार आ गयीं
सिर्फ दधीचि से दिखते मनुष्य
जीविका के लिए जूझते मनुष्य |

आक्रमण हुआ
त्राहि त्राहि मच गयी
पर कोई इंद्र नहीं आया
और एक एक करके
दधीचियों को निगलता जा रहा है
बेरोजगारी का दैत्य ...
(01.10.99)

प्रकृति जब जागेगी

बलिदान कहो या आहूति
दान कहो या त्याग
करना होगा!
अतृप्त क्षुधा के मौन का
है अंतराल इतना लम्बा
भरना होगा!
सूख चुके हैं वक्षोरूह
अब मत नोचो
होगा कुरूप कितना भविष्य
कुछ तो सोचो
समय रहे न चेते तो
यह तय समझो
प्रस्ताव नहीं कुछ भी होगा
निर्णय समझो
जब कभी मौन ये टूटेगा
निश्चेष्ट चेतना जागेगी
मांगेगी तो हे मानव!
प्रकृति लहू ही मांगेगी |
(11.10.98)

Tuesday 10 April 2012

कई दिनों से सोच रहा हूँ...

कई दिनों से सोच रहा हूँ
कि तुम्हारे कांधों पे बांह डाल कर बैठूं
और धीरे से कह दूं
वो सब
जो मैं सोचता रहा हूँ
बीते कई सालों से...

कुछ गुनगुनाऊँ मैं
एक गीत ढूंढ पाऊँ मैं
और तुम सुन सको - वो
जो मैं कह नहीं पाया हूँ
सिर्फ गीतों में ढूँढा हूँ
और गुनगुनाया हूँ...

बेफिक्र निकलें हम
सड़कों पर
आवारा - यूँ ही
तुम्हारे हाथ कि छोटी ऊँगली
फंसा लूं अपनी ऊँगली में
और
तुम्हारी सीप सी आँखों में उट्ठे हर सवाल पर
एक तारा दिखा दूं - बहका दूं तुमको ||
कई दिनों से सोच रहा हूँ
साथ बैठूं तो
तुम्हारे कांधों पे बांह डाल दूं
और कह दूं ...

पारदर्शी शीशा














जब देखा तो आर पार, 
और बढ़ा हाथ तो थी दीवार
दीवार – नहीं जो दिखती थी, 
भरपूर हथेली टिकती थी

अनुभव ये एक नया हुआ, 
मैंने अदृश्य को अभी छुआ
अब बहुत हुआ, रास्ता मोडूँ, 
पर शब्दकोष में क्या जोडूं |

नन्ही मुन्नी यह काँच है, 
और बाहर इसके आँच है
ये माँ कि ममता जैसा है, 
दिखता ही नहीं बस ऐसा है

इसके बाहर दुनिया देखो, 
तितली देखो बगिया देखो
देखो सीखो हर चीज़ नयी, 
पर छोटी हो, सो रहो यही |
(श्री अशोक चक्रधर द्वारा प्रस्तुत चित्र पर रचना)

Monday 9 April 2012

मेरी आदत नहीं है ये

मेरी आदत नहीं है ये, मैं, यूँ ही हल्ला नहीं करता
सन्नाटों से डर नहीं होता, तो उनपे हमला नहीं करता |

तुम्हारी आँख में चश्में दिखे थे, बाद मुद्दत के
मैं जब सहराओं से गुज़रा हूँ, कभी ठहरा नहीं करता |

पकड़ मेरी ही शायद कुछ ज्यादा, सख्त रही होगी
गले मिलने में अब तक वो कभी चीखा नहीं करता |

बिछड़ने का कहाँ गम था, कोई तिनका रहा होगा
आने जाने में अब उसके, आँखें मींचा नहीं करता था |

बगल के घर में भी एक घर बना लेता अगर बूढ़ा
मेरा दावा है तन्हा हो के भी तन्हा नहीं मरता |

तवायफ ने अगर खुद को तवायफ कह दिया होता
ज़माने में कहाँ दम था फिर यूँ फिक्रें किया करता |

मेरी ज़मीन से उठकर, देखो कितनी तपिश में है
सूरज - ज़मी पर गर रहा होता, अभी भी सोंधा हुआ करता |

शिकायत कहने सुनने से, मसले सुलझ ही जाते हैं
प्यार अँधा तो होता है, मगर बहरा नहीं होता |

मेरे माथे पे बल पड़ते हैं, जब ये सोचता हूँ मैं
जब जब लुटा हूँ मैं, तुमपे पहरा नहीं होता |

किसी झोपड़ की बेटी की ,वो जब तकदीर लिखता है
वहां दूल्हे तो होते हैं, उनका चेहरा नहीं होता |

मेरा कद बालिश्तों में नापने वालो ज़रा सुन लो
मैं सागर हूँ और कुछ भी, मुझसे गहरा नहीं होता |

जिंदा हो ?

जो इंसां हो, तो इंसां हो, ...कहो खुद से कि जिंदा हो

दीवारें खुद किसी को रास्ता देती नहीं देखीं 
रीढ़ पे ज़ोर दो, सीधे खड़े हो, ...देखो तुम खुद परिंदा हो 
जो इंसां हो, तो इंसां हो, ...कहो खुद से कि जिंदा हो ||

वो जो तुमसे गया है, पछतायेगा या लौट आएगा 
तुम तो बस एक हो और नेक हो, ...कहो खुद से चुनिंदा हो
जो इंसां हो, तो इंसां हो, ...कहो खुद से कि जिंदा हो ||

दर्द

दर्द देखा है कभी?

महसूस ही किया होगा
देखा तो ना होगा |

पानी तो देखा होगा
गिलास में रक्खा
ठहरा हुआ, पारदर्शी 

जैसे कुछ है ही नहीं |

इसे छू कर देखो 

ऐसा ही होता है दर्द
चुपचाप
कोई छू दे बस
घण्टों बनी रहती है हलचल
कुछ देर दिखती है
फिर नंगी आँखों से नहीं दिखती
पर चुभती बहुत देर है |

बगुले और धूप

बगुले कितने सफ़ेद होते हैं
वे धूप में और भी सफ़ेद होते हैं
क्या धूप भी सफ़ेद होती है
नहीं ...
बगुले धूप से भी सफ़ेद होते हैं

धूप पारदर्शी होती है
इसलिए दिख नहीं सकती
बगुले उस पार नहीं दिखते
इधर - कितने सफ़ेद होते हैं

बहुत अनमोल होता है
जो पारदर्शी होता है
मगर दिखता नहीं व्यक्ति
अगर पारदर्शी होता है

व्यक्ति जो दिखता है
वो उस पार नहीं दिखता
और इस पार क्या देखें
बहुत सफ़ेद दिखता है

धूप अनमोल होती है
मगर वो दिख नहीं सकती
बगुले दिख भी सकते हैं
और बहुत सफ़ेद होते हैं |

ऐ नियति!

ऐ नियति मेरे जीते जी एक बार मुझे मिलना जरूर
मैं भी तो देखूं किसविध तू, कर देती सपने चकनाचूर |

तू मुई हाथ कि रेखाओं की हेर-फेर में माहिर है
बहुतों कि होनी देखी है, ये हर होनी से जाहिर है
एक बार तेरे भी माथे पे बल, मैं भी देखूँगा जरूर
ऐ नियति मेरे जीते जी एक बार मुझे मिलना जरूर |

क्या मेरी करनी का फल और क्या तेरी खुरापात
मैं डाल-डाल तू पात-पात, दे एक हाथ ले एक हाथ
लेखे पे तेरे, तेरी लेखनी, एक बार मैं तोडूंगा जरूर
ऐ नियति मेरे जीते जी एक बार मुझे मिलना जरूर |

हिचकी

जब एक ही हिचकी आई थी , ये बात समझ ना आई थी ,
ये कैसे याद किया तुमने, मन कैसे बांध लिया तुमने,
पूरा दिन औ आधी रात गई, एक ही हिचकी कि याद भई,
क्या दिल फिर ना बेचैन हुआ, ना स्वप्न कोई उस रैन हुआ,
तरकीब कौन सी कैसे की, आती थी हिचकी वैसे भी,
ये बात समझ ना आई थी, जब एक ही हिचकी आई थी ,
ये कैसे याद किया तुमने ...

फिर नींद रही आधी कच्ची , फिर आयी नहीं कोई हिचकी,
सब रात गयी बौराई सी, और आँख खुली अलसाई सी,
अब सोच रहा हूँ सपना था, मुश्किल है होना घटना का,
उलझनों में कितनी भटका हूँ,अब तक हिचकी में अटका हूँ,
ये बात समझ ना आई थी, जब एक ही हिचकी आई थी ,
ये कैसे याद किया तुमने ...

तुम्हारी याद

किसी करवट बदन मेरा, नहीं पूरा नहीं पड़ता
मैं इस लेटूं कि उस लेटूं , अधूरापन नहीं भरता
कुछ तो है, जो है, या है नहीं, कुछ रोज जैसा कुछ
थकन से चूर हूँ फिर क्यूँ , नींद से गिर नहीं पड़ता ||

मेरे बिस्तर की सिलवट गिन के देखीं, रोज जितनी हैं
यही दो चार चीज़ें नींद को, जरूरत और कितनी हैं
एक ही नींद में मेरी सुबह हो जाती थी अब तक
नींद की धार मर गयी है, समय काटे नहीं कटता ||

चिढ़न तो होती ही है जब मेरे मन का नहीं होता
बिगड़ जाऊं अगर एकबार, बिना निपटे नहीं सोता
मगर लड़ने झगडने के भी तो कुछ कायद होते हैं
जरा गुस्सैल हूँ तो भी, नींद से तो नहीं लड़ता ||

जो आदत पड़ गयी सो पड़ गयी, बदली नहीं जाती
बदल जाये जगह भी तो, नींद अक्सर नहीं आती
मेरी तकिया बदल दी है कि चादर मखमली कर दी
मुझे सूती की आदत है, ये सूती सा नहीं गड़ता ||

वो...

भुला दिया उन्होंने हमें, यकबयक इस क़दर,
लगता आ गया रकीब कोई, फिर से शहर में 

जिनके आये गए पैगाम, हर रोज़ हर पहर,
अब तलाशते है उनको हम, हरएक खबर में 
(द्वारा : अमित )

बेख़ौफ़ तैरते रहे वो अब तक तो ख्वाब में,
नश्तर से चुभ रहें हैं क्यूँ, लगातार नज़र में 

जाँ ले ही जाएगी ये लगन, लगता है इस दफा,
हद से हद्तर उठा है दर्द, इस बार जिगर में 

उनकी तो ना वाकिफियत में नुमाईशें रहीं,
दिल, जाँ, दो जहाँ से गया, बेकार इधर मैं 

सुनते थे इश्क में कई दुनियां बदल गयीं,
फिरते हैं दर बदर से अब, बेज़ार शहर में 

इन पत्थरों ने कम से कम इतना बता दिया,
घरौंदे थे कई बसे हुए इस एक शज़र में 

वो दिल नहीं है जिसके धड़कने से साँस है,
हैं और भी पुर्जे यहाँ हर एक बशर में 

एक और एक ग्यारह होता है

सारा जग यूँ ही कहता है 
एक और एक ग्यारह होता है |

मैंने भी एक बार रखा था 
एक और एक को 
सोचा था सम्मुख देखूँगा 
सपने को सच को |
कैसे जुड़ के बूँदें दो
बन जातीं सरिता 
कैसे जुड़ के दो छुद्र 
पाते सौन्दर्य मणि का |

मैंने भी एक बार रखा था 
एक और एक को 
सोचा था अनुभव कर लूँगा 
पल अदभुत को |
प्रेमपाश, मन का विश्वास
कुछ भी काम न आया 
ज्यों-के-त्यों दोनों बने रहे
कोई परिणाम न आया |

परख नहीं पाया अब तक मैं 
कहावतों का कहा हुआ 
बहुत जुड़ा तो दो तक पंहुचा 
ग्यारह नही हुआ |

दिखने को दो 'एक' थे और
कहने को ग्यारह होता है |
सारा जग यूँ ही कहता है 
एक और एक ग्यारह होता है |

चलती जाती है जिंदगी...


दुविधाओं के दोराहे, सही गलत के मोड़ हैं
कुछ भी कर लो, सुकूं कहाँ, पाती है ...जिंदगी |

पांव पसारूं थोड़ा रुक लूं, दम थोड़ा सा ले लूं
दो चार कदम चलती है, थक जाती है ...जिंदगी |

कंधों पे लादा, नहीं सधा, रीढ़ मुड़ गयी लगती है
पछुआ भी चलती है तो, कंप जाती है ...जिंदगी |

बचपन बीता सो बीत गया अब इत्ती सी रह जाती है
कुछ बालिश्तों में बाकी, नप जाती है ...जिंदगी |

ठन्डे पानी के कुछ छींटे, बरगदी छावं के एक दो पल
जी सकने की नौबत ही कहाँ, पाती है ...जिंदगी |

जितना है प्यार जता जाना

लालच ना दिया होगा खुलकर, जी भर ना मन बहलाया होगा
ना ललक जगाई होगी जगने की, ना पूनम का चाँद दिखाया होगा

ना बात रात की कुछ की होगी, ना तारों में कुछ दिखलाया होगा
ना सोंधी खुशबू ओस में ढूंढी, ना बादल में चित्र बनाया होगा

ना मैं तुम हम की बातें की, ना वो दिन याद दिलाया होगा
ना हाथ की रेखा बाँची होंगी, ना सुनेपन से डरवाया होगा

ना गिरती नब्ज़ दिखाई होगी, ना अपना डर बतलाया होगा
ना आँखें खाली दिखलाई होंगी, ना रूखा गला जताया होगा

कुछ नहीं कहा तो जाने दो, बस इतना ही कर जाना था
हाथ थाम के दिल पे रख कर, है प्यार बहुत बतलाना था

अरे क्या होता और क्या ना होता, सर थोड़े कट जाना था
एक बार और फिर कोशिश करते, है प्यार बहुत बतलाना था

कहाँ रुके हैं जाने वाले, बस थोडा और मनाना था
हाथों में चेहरा ले लेते , है प्यार बहुत बतलाना था

वादा तो इतना ले लेते, फिर लौट के वापस आ जाना
थोडा ही सही बिलकुल ही नहीं, जितना है प्यार जता जाना

इकरार नहीं एक बार सही, जितना है प्यार जता जाना
अब होगी कोई तकरार नहीं, जितना है प्यार जता जाना

अब कोई कसम दो बार नहीं, जितना है प्यार जता जाना
है प्यार नहीं है, प्यार नहीं, बस आ जाना बस आ जाना
एक पल के लिए कुछ भी करके, जितना है प्यार जता जाना

एक थाली में चार चम्मचों से

एक थाली में चार चम्मचों से, 
पांच यार नहीं खाते

पता नहीं, प्यार बढ़ा है या के ख़म है अब 
जूठा, तब मीठा हुआ करता था, के कम है अब 
आखरी कौर कि वो तलवार बाजि़यां, 
वो चम्मचों के युद्ध, 
वो छिना झपटी, वो रगड़ घिस 
वो तू तू मैं मैं सरेशाम,
अब नज़र नहीं आते |

एक थाली में चार चम्मचों से, 
अब पांच यार नहीं खाते |

उम्र बदली तो बदल गये हैं, तौर तरीके भी 
गले मिलने की जगह हाथ मिलाना सीखे 
मिलने जुलने के सीखे हैं कुछ और सलीके भी 
दाल चावल पे जीरे घी का तड़का, 
संग गालियों के चटख मसालेदार, 
तीखे तगड़े खड़े अचार नहीं खाते |

एक थाली में चार चम्मचों से, 
बैठ के पांच यार नहीं खाते |

ख़म = शिथिल 

स्मृति क्या है

स्मृति क्या हैं - बहुत सीमित हैं 
इतनी कि उँगलियों पे गिनी जा सकती हैं |

स्मृति वो एक खिलौना है 
लाल रंग का, लकड़ी का बना हुआ
कई बार तोड़ा था मैंने 
पर पापा उसे हमेशा जोड़ दिया करते थे 
कब खो गया याद नहीं 
पर उसकी याद, अभी भी है |

स्मृति एक दिन है 
वो पहला दिन 
पापा ने मेरी साइकिल छोड़ दी थी
और मैंने चलायी थी पहली बार 
बिना किसी सहारे के, 
साइकिल अब नहीं है 
जंग खा गयी थी  
पर एहसास, अब तक एक ही है |

स्मृति है वो मेरी पहली टी-शर्ट 
चटक पीले रंग की 
मैंने खुद खरीदी थी - अकेले
किसी ने भी तारीफ नहीं कि थी
पर मुझे बहुत पसंद थी
तो क्या हुआ 
जो रात में पहन के सोने के ही काम आयी |

स्मृति एक चेहरा 
परेड की रामलीला में 
तीन लाइन छोड़ के बैठा था 
नाम नहीं बताया था 
लेकिन जाते हुए मुड़ के देखा था उसने 
फिर कभी नहीं देखा 
देखूं तो पहचान भी नहीं पाऊँगा 
पर याद है |

स्मृति है 
मेरी पहली तनख्वाह 
लगता था सारी दुनिया खरीद लूं 
सबके लिए कुछ न कुछ 
इतनी ज्यादा नहीं थी, लेकिन 
वो एहसास अब ज्यादा तनख्वाह 
पे भी नहीं आता |

स्मृति है कान में बजने वाली घंटियाँ 
जब पहली बार किसी ने नाम नहीं लिया था
बस पूछ लिया था
कैसे हैं ?
जानता हूँ फिर सुनने को नहीं मिलेगी 
मगर अब तक वो आवाज़ 
आज भी है कानों में |

स्मृति है शताक्षी 
पहली बार किसी बच्चे को गोद नहीं लिया था 
लेकिन चंद्रकांता के छज्जे पर 
दिसंबर की धूप और उसके 
नन्हे मुलायम हाथ! 
जरा सी धूप चेहरे पे पड़ने पे 
आँखें मीच लेती थी |


हैं और भी पर ठहर जाता हूँ  

आज में रहने दो 
ये स्मृतियाँ ले जाएँगी 
मेरा आज छीन कर 
क्या पता 
आज में भी कोई स्मृति छुपी मिल जाये ||