Tuesday 10 April 2012

पारदर्शी शीशा














जब देखा तो आर पार, 
और बढ़ा हाथ तो थी दीवार
दीवार – नहीं जो दिखती थी, 
भरपूर हथेली टिकती थी

अनुभव ये एक नया हुआ, 
मैंने अदृश्य को अभी छुआ
अब बहुत हुआ, रास्ता मोडूँ, 
पर शब्दकोष में क्या जोडूं |

नन्ही मुन्नी यह काँच है, 
और बाहर इसके आँच है
ये माँ कि ममता जैसा है, 
दिखता ही नहीं बस ऐसा है

इसके बाहर दुनिया देखो, 
तितली देखो बगिया देखो
देखो सीखो हर चीज़ नयी, 
पर छोटी हो, सो रहो यही |
(श्री अशोक चक्रधर द्वारा प्रस्तुत चित्र पर रचना)

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