Tuesday 12 March 2013

रात / नवीन कुमार पाठक

एक तरफ खींचता हूँ
दूसरी तरफ उलझ जाती है
उलटता हूँ पलटता हूँ
ढील देता हूँ
फिर खींचता हूँ
डरता हूँ गाँठ न पड़ जाए
नाखून भी अभी ही काटे हैं
गड़ा के खोल भी ना पाऊँगा

कमबख्त! दिखता भी नहीं है
कहीं सिरा तो होगा ही
वही दिख जाता ।

फिर सोचता हूँ एक गाँठ तो आनी ही है
यहीं से तोड़ कर सिरा बना दूं
और जोड़ दूं सुबह से ।

उलझी हुई डोर की मानिन्द
रात हुई है ।