Monday 13 May 2013

बहुत कठिन है ये दुनियादारी !

पूरे बिस्तर पर बिखरी हैं
बेतरतीब, गैर जरूरी चीज़ें
एक रूमाल, कल का अखबार
हिसाब की कापी, फोटो एलबम
और मोबाईल का चार्जर ।

और इनमें ही उलझ के
कहीं गुम जाती है मेरी नींद ...

खुद तो नहीं आये ये सब
तब मैं ही लाया और छोड़ दिया वहीँ
...अब आँखों में चुभते हैं ।

जब आँखों में नींद भरी हो
इन्हें देखना भी भारी लगता है,

फिर अचानक लगता है
उलझन यहाँ नहीं है...
कहीं और है
मुझे पहले ही
अपनी वस्तुस्तिथि का ज्ञान होना चाहिए ।

कहाँ मैं निपट ढोल-गंवार
किस्से कहानियों में जीने वाला
और कहाँ ये सयाने
वक़्त की समझ रखने वाले लोग ।

अब रिश्ते उलझ रहे हैं,
दायरा बहुत बढ़ गया है शायद
समेट ही लेता हूँ कुछ खुद को
ये तो सुलझने से रही ।बहुत कठिन है ये दुनियादारी !

Monday 6 May 2013

दिल भी मेरा पत्थर का ही होगा

मैं बहुत सख्त हूँ-बहुत सख्त! ...बताया था यही मैंने
वो यही जानता है दिल भी मेरा पत्थर का ही होगा ॥

बिछड़ कर मुझसे वो टूटा भी और कमज़ोर भी हुआ
कलाई पर निशां गहरा किसी नश्तर का ही होगा ॥

फूँक कर पाँव रखते हो, सोच कर बात कहते हो
तुम्हारे इस हुनर में हाथ एक ठोकर का भी होगा ॥

अभी भटके हो सहरा में, अभी कुछ दिन यही होगा
हरएक निशां पे बोलोगे किसी लश्कर का ही होगा ॥

वो रोया खून के आंसू और जिसका दिल नहीं पिघला
क्यूँ ना कह दूं वो भगवान् भी पत्थर का ही होगा ॥

(05.05.2013)

Saturday 4 May 2013

मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली

घड़ी भर भी नहीं बोले, रहे घंटों तक संग मेरे
मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली ||

वो पहले तो मेरी बातों पे जैसे झूम जाते थे
मेरी आहट पे उनके रस्ते भी तो घूम जाते थे
वही अब हैं मेरी आवाज़ भी ना पहचान पाते हैं
रही ना शायद अब उनको कोई आदत पहले वाली ||

मेरी बातें मेरे सपने यही थे रात दिन कुछ दिन
के जैसे सांस भी लेना गवारा था ना मेरे बिन
और ये क्या है कि संग बैठे है फिर भी साथ नहीं हैं
मैं कैसे मान लूं कि है वही साथी पहले वाली ||

नहीं मिलती नज़र से यूँ नज़र के चैन आ जाये
नहीं मिलते हैं अब ऐसे सुबह से रैन आ जाये
मगर अब मिलते हैं ऐसे के जैसे रस्म हो कोई
नहीं मिलती मुझे मिलके वही राहत पहले वाली ||

घड़ी भर भी नहीं बोले, रहे घंटों तक संग मेरे
मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली ||

Friday 3 May 2013

वर्ष 1989 की गर्मियों की छुट्टी में अपने गाँव, जिला जौनपुर में प्रवास के दौरान कुछ ऐसे परिवारों के बारे में सुना जिनके बच्चों ने दूध के विषय में केवल सुना ही होता था | दूध का स्वाद वो नहीं जानते थे | कुपोषण और कई बार भोजन का आभाव और उस इलाज़ की सामर्थ्य न होने के कारण बच्चों की मृत्यु तक हो जाती थी | ऐसी ही एक घटना के बाद ये रचना हुई:

माँ जन्नत कैसी होती होगी
क्या उसमें रोटी भी होगी ?
ऐसे सवाल पर माँ हंस दी
एक टूटती आह कस दी |
हाँ बेटा, ऐसी ही होगी
भूख वहां नहीं लगती होगी
दूध चावल मिलता होगा
बच्चों का चेहरा खिलता होगा |
माँ दूध कैसा होता है
गुड़ से मीठा होता है ?

माँ की नज़रें फिर से फिर गयीं
दो बूँदें अश्कों की गिर गयीं |
क्या वहां पे खाना बांटता होगा
पेट वहां नित भरता होगा
है सुना वहां ना कोई गम है
वहां गरीबी भी कम है |
जब वहां पे सब सुख पाते हैं
हम क्यों नहीं वहां पे जाते है !
वो नगर नहीं इतना सस्ता
मुझे पता नहीं उसका रास्ता ||

माँ ! वहां तो मर के जाते हैं
फिर हम क्यों नहीं मर जाते हैं
मौत यहाँ कहाँ बटती है
उसकी भी कीमत लगती है |
माँ जन्नत क्या असमान में है ?
अपने तो बस अरमान में है
चल तू एक रोटी खा ले
फिर मैं तुझे सुलाऊँगी
तू सोना परियां आयेंगी
तुझको जन्नत ले जाएँगी ||

पर ये क्या वो तो हो गया पार 
अब कहाँ उसे इसकी दरकार 
मौत के पर ले हुआ परिंदा 
जन्नत का हो गया बाशिंदा ||
(13-07-1989)