Thursday 1 August 2013

मैं समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

समाहित कर लेता हूँ
नितांत गरल
और अचल रहता हूँ
ना मेरा आकार बढ़ता है
ना स्वरुप बदलता है
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

अनछुआ हूँ
आंधी-पाला-बरसात से
जीवित हूँ
आभाव में दुराव में
ना मेरा स्वभाव बदलता है
ना व्यवहार बदलता है
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

क्षमा ही मेरा संस्कार हो
मृदुल ही मेरा आचार हो
और सार्वजनिक हो
मेरा स्वाभीमान
मेरी निजसत्ता
मेरी अद्वितीयता
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

मुझे मर्यादाओं का ज्ञान रहे
सीमाओं का भान रहे
ऐसे अस्तित्व में ही निहित
कैसे स्वयं का मान रहे
किंकर्तव्यविमूढ़
निरुपाय हो रहा हूँ
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ