Saturday 19 July 2014

हे! कवि .....

(निर्भया जैसे अनेक प्रकरणों पर अब शर्म आती है )

हे! कवि .....

कविता लिखनी है
तो शर्म लिखो
कुछ कहना है;
तो शर्म कहो
कुछ सुनना है;
बेशर्म सुनो
जिन्दा रहना है;
शर्मिंदा हो
कुछ खाना है
तो लज़्ज़ा खा
कुछ पीना है
तो लज़्ज़ा पी
मर जाना
यदि सम्भव ना हो
ए निर्लज़्ज़
जीवन लज़्ज़ा का जी ।

माँ का ऐसा आलिंगन
बहनो से ऐसा प्यार
किस तरह की ममता छिड़क रहे
पुत्री से ऐसा दुलार
ये कैसे जाए जने माँओं ने
किस तरह के हैं संस्कार
ये किधर जा रहा है भारत
भरतवंशियों होशियार

विधि का विरोध
इस तरह का क्रोध
इतनी क्रूरता
इतना रोष
किस कुल के हो
है क्या गोत्र
हैं कौन पूर्वज
है किसका रक्त
है ह्रदय ?
कि सब पाषाण ही है
सुनो कि कितनी पीड़ा है
स्वर नहीं है ये चीत्कार ही है ।

देखो आसपास
क्या है समाज
किसको पूछें
किस पर विश्वास
भेड़िये जने हैं
भेड़ों ने
जहर उग रहा
पेड़ों में
क्या बोते हो
क्या काटोगे
अगली पीढी को सोचो तो
किस तरह वसीयत बांटोगे ?

छल का प्रयोग
बल का प्रयोग
मैं तुझको भोगूं
तू मुझे भोग
आसुरी लालसा
मुंह विशाल सा
हैवान भरे
परिवार डरे
दृश्य लगे दिखने अजीब
अब दांत काटने लगे जीभ |

आधा ही
कलयुग बीता है
पापी घट अब भी
रीता है
अब और क्या
आँख ये देखेगी
किस तरह
जिंदगी बीतेगी
हे! कलिकी
हो अवतरित प्रभो
हे! महाकाल
अब दर्शन दो |

हे! कवि .....

कविता लिखनी है
तो शर्म लिखो
कुछ कहना है;
तो शर्म कहो
कुछ सुनना है;
बेशर्म सुनो
जिन्दा रहना है;
शर्मिंदा हो
कुछ खाना है
तो लज़्ज़ा खा
कुछ पीना है
तो लज़्ज़ा पी
मर जाना
यदि सम्भव ना हो
ए निर्लज़्ज़
जीवन लज़्ज़ा का जी ।

No comments:

Post a Comment