Monday 25 May 2015

आसान नहीं है तारा होना

आसान नहीं है तारा होना
खुद ही में जलना
लावे सा पिघलना
निरंतर |
अलग कर लेना खुद को,
अवस्थित कर लेना
दूर कहीं अन्तरिक्ष में
सबसे अलग
आकाश गंगा में
ध्रुव हो जाना |

भभकती ये ज्वाला
दूर ........बहुत दूर से
टिमटिमाती सी दिखाई देती है
और नितांत पीड़ा सहता सूर्य
तारा सा दिखता है
शांत शीतल टिमटिमाता हुआ
बहुत घने अंधेरों में ……. बहुत चमकदार |

आसान नहीं है तारा होना...

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)

तीन तेरह में रहा खोया, कल परसों में

तीन तेरह में रहा खोया, कल परसों में
तिहीकिस्मत रही और उम्र गयी बरसों में ||

मैं तो लिखता रहा दिन रात मेरे, नाम तेरे
जिंदगी तू ना बिकी, हाय! ना मिली हर्फ़ों में ||

इस तरह तो कभी कीमत नहीं पूरी होगी
किश्तें तू लेगी जो, कुछ सामने कुछ पर्दों में ||

देरे लम्हा सही, सिहरन से गुज़र जाएगी
रू-ब-रू मैं जो हुआ, लाख हो तू फ़र्दों में ||

एक दिन तो तुझे एहसास भी हो जायेगा
था क्या जो हार गयी, जीत के भी शर्तों में ||

तीन तेरह में रहा खोया, कल परसों में.....

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)

तिहीकिस्मत = भाग्य विहीन
हर्फ़ों = अक्षर
देरे लम्हा = यात्रा का एक क्षण
फ़र्द = रजाई

Saturday 18 April 2015

कुछ तो खोया है

नाम याद है
पता भी याद है
दोस्त रिश्तेदार परिवार
सब याद है
फिर खोया क्या है

जहाँ तक जानता हूँ
सब कुछ है
फिर भी लगता है
कुछ है, जो नहीं है
कुछ है, जो अधूरा कर रहा है

चौराहा है
चार रास्ते हैं |
मेरा मोड़ कौन सा है
जहाँ खड़ा हूँ
वहां से आगे जाना है
या पीछे रास्ता है
आया किधर से था ....मैं

मैं .............. मैं कौन
इस नाम के तो सैकड़ों होंगे
फिर, मैं कौन ?
बिना सरनेम का
एक चेहरा
बिना आँख नाक मुंह कान का
सिर्फ आकार का
कोई तो पहचानता होगा
कोई पडोसी, कोई घर का

घर .......... घर कहाँ
घर का पता
पता तो है
मकान नम्बर ?
अभी तो याद था
क्या हो रहा है
सब क्यूँ खो रहा है ?

अनजान रास्ता
अनजान चेहरा
और अधूरा पता
शहर क्या आया
ज़मीन ही खो गयी मेरी |
ज़मीन .... मेरे मनुष्य होने की
एक परिवार होने की
एक मित्र होने की
एक पुरुष होने की

नाम पता ढूंढ भी पाया,
तो ........तो हो जाऊंगा
अमुक नाम अमुक पता
जिसकी जमीन खो गयी है
इसी रास्ते पे आगे रहता है |

Wednesday 15 April 2015

जब खाली हैं तो अखर रही है

जब बिजी हैं...... तो बिजी हैं
जब खाली हैं तो अखर रही है
कमी तुम्हारी बनी हुई है
बस जैसे तैसे, गुज़र रही है |

शऊर कम था एक तरफ तुला में
गूरुर की हद थी दूसरे में
एक मिनट ने तौला था एक सदी को
कौड़ी कीमत लगी, बिकी दूसरे में

जुदा नहीं है, जुड़े भी नहीं हैं
कुछ कसर रही है, बसर रही है |
बस जैसे तैसे, गुज़र रही है |

जब बिजी हैं...... तो बिजी हैं
जब खाली हैं तो अखर रही है ||

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)

( शऊर = शिष्टाचार, Etiquette; तुला = तराजू, Scale; गूरुर = अहंकार, Ego )

गैर-जरूरी रिश्ते

कीमती जेवरों की तरह,
संदूक में कहीं भीतर
कपड़ों की तह में
सहेज कर रक्खे हुए

आसमान छूती
बुलंद जिंदगी की
जमीन की सतह से नीचे
नींव की तरह छुपे हुए

चौबीस घंटों के चक्र में
हफ्तों तक
कभी कभी महीनों और सालों भी
जिनकी जरूरत नहीं पड़ती

रोज़मर्रा की जिंदगी में
गैर-जरूरी से रिश्ते;
भले ही, याद नहीं किये जाते
होते हैं, बहुत जरूरी रिश्ते

वे बने रहते हैं
जरूरत की ज़मीन से कहीं बहुत नीचे
या कि आकाश से विस्तृत
हर तरफ - बहुत ऊपर
कभी, पीठ पर किसी भरी हथेली से,
समेटने को तैयार बाहों से
या कि बराबर से खड़े कद हों कोई,
कि दुनिया भर की जगह लिए कंधे

रोज़मर्रा की जिंदगी में
गैर-जरूरी से रिश्ते;
भले ही, रोज़ याद नहीं किये जाते
होते हैं, और बने रहते हैं
बहुत जरूरी रिश्ते ||

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)

पत्थर उठा के मारा है

पत्थर उठा के मारा है
...और अब उनकी राह देखता हूँ

मैं पुष्प नहीं हूँ
पराग भी धारण नहीं करता
और इश्क हुआ है
शहद के कारीगरों से
वो भला क्यूँ आयेंगेमुझ तक
हमारा एक ही रिश्ता हो सकता है
... दंश का !

पत्थर उठा के मारा है
...और अब उनकी राह देखता हूँ ||

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)

घर से विदा कर दिया, स्नेह को!

उसने 'अहंकार' को पाला
और घर से विदा कर दिया,
स्नेह को!

स्नेह का
बार बार टोकना समझाना
उसे पसंद नहीं था
'अहंकार' असहज हो जाता था |
एक दो बार 'स्नेह' को संकेत भी दिया
मगर वो बूढ़ी लकड़ी, टूटने को तैयार थी
मगर मुड़ने को नहीं
अंततः वही हुआ जिसका डर था
उसने 'अहंकार' को पाला
और घर से विदा कर दिया,
स्नेह को!

अहंकार को नया नाम मिला है
"स्वाभिमान"
आज उसके नामकरण की दावत है
खूब रौनक है
काफी लोग आये हैं
'चाटुकार' सबसे पहले पंहुचा
'लोलुप', 'लम्पट' एक साथ आये
'अनर्गल प्रलाप', 'स्वम् वक्ता' और 'अज्ञान' भी पहुच गए
'मित्थ्या स्तवन' के आते ही रौनक आ गयी
और आखिर में
'आत्ममुग्धता' ने दावत शुरू कर दी |
किसी ने भी 'स्नेह' की प्रतीक्षा नहीं की

अब स्नेह वहां नहीं रहता
वो रहता है सड़क उस पार
सामने के मकान की
पहली मंजिल पर |
वह ना तो अपना नाम ही बदल पाया
ना स्वभाव,
अब भी ताकता रहता
इस तरफ;
उम्र का क्या भरोसा
क्या जाने, कल परिचय की डोर भी टूट जाये,
काश ! जाते जाते बता पाता,
"दावत निपटते ही ये सब चले जायेंगे
गर मैं भी ना रहूँ
तब सिर्फ 'विवेक' का भरोसा करना
तुम नहीं जानती
'अनमोल' हो तुम" |

- नवीन
(... यूँ ही कुछ सोचता हूँ मैं)